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।। अंगिरा ज्योतिष पर आपका स्वागत है ।।

ज्योतिष अर्थात अध्यात्म

कुछ बातें जान लेनी जरूरी है। सबसे पहले तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि वैज्ञानिक दृष्टिछ से सूर्य से समस्त सौर्य परिवार का—मंगल का, बृहस्प ति का, चंद्र का, पृथ्वीय का जन्मय हुआ है। ये सब सुर्य के ही अंग है। फिर पृथ्वीत पर जीवन का जन्मि हुआ—पौधों से लेकर मनुष्य तक। मनुष्यस पृथ्वीग का अंग है, पृथ्वीज सूरज का अंग है। अगर हम इसे ऐसा समझें—एक मां है, उसकी एक बेटी है। और उसकी एक बेटी है—उन तीनों के शरीर का निर्माण एक ही तरह के सेल्सन से एक ही तरह के कोष्ठोंस से होता है।

" और वैज्ञानिक एक शब्दी का प्रयोग करते है एम्पैयथी का, समानुभूति का। जो चीजें एक से ही पैदा होती हे। सूर्य से पृथ्वीक पैदा होती है, पृथ्वीा से हम सबके शरीर निर्मित होते है। थोड़े ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है। सूर्य पर जो घटित होता है वह हमारे रोम-रोम में स्पंेदित होता हे। क्योंहकि हमारा रोम-रोम भी सूर्य से ही निर्मित है। सूर्य इतना दूर दिखाई पड़ता है, इतना दूर नहीं है। हमारे रक्तर के एक-एक कण में और हड्डी की एक-एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है। हम सूर्य के ही टुकड़े है। और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते है। इसमें कुछ आश्च र्य नहीं है—एम्पै थी है, समानुभूति है।

 

समानुभूति को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। जो ज्योततिष के एक आयाम में प्रवेश हो सकेगा। प्रयोग किए जा सकते है। और इस तरह के बहुत से प्रयोग पिछले पचास वर्षों में किए गए है। तो एक ही अंडज जुड़वां बच्चोंे को दो कमरों में बंद कर दिया गया,फिर दोनों कमरों में एक साथ घंटी बजायी गयी है और दोनों बच्चोंह को कहा गया है, उनको जो पहला विचार जो ख्यांल आता है वह उसे कागज पर बना लें। या तो पहला चित्र उनके दिमाग में आता हो तो उसे कागज पर बना लें। और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर बीस चित्र बनवाए गए है दोनों बच्चोंि से तो उसमें नब्बे प्रतिशत दोनों बच्चोंल के चित्र एक जैसे है। उनके मन में जो पहला विचारधारा पैदा होती है। जो पहला शब्दन बनता है या जो पहला चित्र बनता है। ठीक उसके ही करीब वैसा ही विचार जुड़वां बच्चेब के भीतर भी बनता और निर्मित होता हे।

" इसे वैज्ञानिक कहते है—एम्पैबथी, समानुभूति। इन दोनों के बीच एक समानता है कि ये एक से प्रतिध्वरनित होते है। इन दोनों के भीतर अनजाने मार्गों से जैसे कोई जोड़ है, कोई संवाद है, कोई कम्यूनिकेशन है। सूर्य और पृथ्वीअ के बीच भी ऐसा ही कम्यूनिकेशन, ऐसा ही संवाद सेतु हे। ऐसा ही संबंध है, प्रतिपल, सूर्य, पृथ्वीऐ, और मनुष्यस उन तीनों के बीच निरंतर संवाद है,एक निरंतर डायलॉग है। लेकिन वह जो संवाद है डायलॉग है वह बहुत गुह्य है और बहुत आंतरिक है और बहुत सूक्ष्मल है। उसके संबंध में थोड़ी सी बातें समझेंगे तो खयाल में आएगा।

 

अमरीका में ,एक रिसर्च सेंटर है—ट्री रिंग रिसर्च सेंटर। वृक्षों में, जो वृक्ष आप काटें तो वृक्ष के तने में आपको बहुत से रिंग्सह, बहुत से वर्तुल दिखाई पड़ेंगे। फर्नीचर पर जो सौंदर्य मालूम पड़ता है वह उन्हीह वर्तुलों के कारण है। पचास वर्ष से यह रिसर्च केंद्र,वृक्षों में जो वर्तुल बनते है उन पर काम कर रहा है। प्रो. डगलस अब उसके डायरेक्टपर है, जिन्होंरने अपने जीवन को अधिकांश हिस्साह, वृक्षों में जो वर्तुल बनते है। चक्र बनते है। उन पर ही पूरा व्यअय किया है। बहुत से तथ्य। हाथ लगे है। पहला तथ्यव तो सभी को ज्ञात है साधारणत: कि वृक्ष की उम्र उसमें बने हुए रिंग्स के द्वारा जानी जा सकती है। जानी जाती है। क्यों कि प्रतिवर्ष एक रंग वृक्ष में निर्मित होता है। एक छाल...वृक्ष की कितनी उम्र है, उसके भीतर कितने रिंग बने हैं, इनसे तय हो जाता हे। अगर पचास साल पुराना है, उसने पचास पतझड़ देखे है तो पचास रिंग उसके तने में निर्मित हो जाते है और हैरानी की बात यह है कि इन तनों पर जो रिंग निर्मित होते है वह मौसम की भी खबर देते है।

 

अगर मौसम बहुत गर्म और गीला रहा हो तो जो रिंग है वह चौड़ा निर्मित होता है। अगर मौसम बहुत सर्द और सूखा रहा हो तो जो रिंग है वह बहुत सकरा निर्मित होता है। हजारों साल पुरानी लकड़ी को काटकर पता लगाया जा सकता है कि उस वर्ष जब यह रिंग बना था तो मौसम कैसा था। बहुत वर्षा हुई थी या नहीं हुई थी। सूखा पडा था या नहीं पडा था। अगर बुद्ध ने कहा है कि इस वर्ष बहुत वर्षा हुई तो जिस बोधिवृक्ष के नीचे वह बैठे थे वह भी खबर देगा कि वर्षा हुई कि नहीं हुई। बुद्ध से भूल-चूक हो जाए, वह जो वृक्ष है, बोधिवृक्ष उससे भूल चूक नहीं होती। उसका रिंग बड़ा होगा या छोटा होगा।

 

डगलस इन वर्तुलों की खोज करते-करते एक ऐसी जगह पहुंच गया है जिसकी उसे कल्पाना भी नहीं थी। उसने अनुभव किया कि प्रत्येीक ग्यारहवां वर्ष पर रिंग जितना बड़ा होता है उतना फिर कभी बड़ा नहीं होता है। और वह ग्या रह वर्ष वही है जब सूर्य पर सर्वाधिक गतिविधि होती है। हर ग्यारहवां वर्ष पर सूरज में एक रिद्म, एक लयबद्धता है, हर ग्या रह वर्ष में सूरज बहुत सक्रिय हो जाता हे। उस पर रेडियो एक्टि विटी बहुत तीव्र होती है। सारी पृथ्वीा पर उस वर्ष सभी वृक्ष मोटा रिंग बनाते है। एकाध जगह नही, एकाध जगह जंगल में नहीं—सारी पृथ्वी् पर सारे वृक्ष रेडियो एक्टिविटी से अपनी रक्षा के लिए मोटा रिंग बनाते है। वह जो सूरज पर तीव्र घटना घटती है ऊर्जा की उससे बचाव के लिए उनको मोटी चमड़ी बनानी पड़ती है, हर ग्याररह वर्ष

 

इससे वैज्ञानिकों में ऐ नया शब्दए और नयी बात शुरू हुई। मौसम सब जगह अलग होते है। कहीं सर्दी है, कहीं गर्मी है,कहीं वर्ष है, कहीं शीत है। सब जगह मौसम अलग है। इसलिए अब तक कभी पृथ्वीस का मौसम क्लाहइमेट ऑफ दी अर्थ—ऐसा कोई शब्दम प्रयोग नहीं होता था। लेकिन अब डगलस ने इस शब्दा का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। क्लाईइमेट ऑफ दी अर्थ। ये सब छोटे-मोटे फर्क तो है ही लेकिन पूरी पृथ्वीू पर भी सूरज के कारण एक विशेष मौसम चलता है। जो हम नहीं पकड़ पाते, लेकिन वृक्ष पकड़ते हे। हर ग्याूरहवें वर्ष पर वृक्ष मोटा रिंग बनाते है, फिर रिंग छोटे होते जाते है। फिर पाँच साल के बाद बड़े होने शुरू होते हे। फिर ग्यारहवें साल पर जाकर पूरे बड़े हो जाते है।

 

अगर वृक्ष इतने संवेदनशील है और सूरज पर होती हुई कोई भी घटना को इतनी व्यंवस्था से अंकित करते है तो क्यान आदमी के चित में भी कोई पर्त होगी, क्याि आदमी के शरीर में भी कोई संवेदन का सूक्ष्म् रूप होगा, क्या् आदमी भी कोई रिंग और वर्तुल निर्मित करता होगा अपने व्यदक्ति्त्व में? अब तक साफ नहीं हो सका। अभी वैज्ञानिकों को साफ नहीं है कोई बात कि आदमी के भी क्या् होता है। लेकिन यह असंभव मालूम होता है कि जब वृक्ष भी सूर्य पर घटती घटनाओं को संवेदित करते हों तो आदमी किसी भांति संवेदित न करता हो। ज्यो्तिष, जो जगत में कहीं भी घटित होता है वह मनुष्यी के चित में भी घटित होता है, इसकी ही खोज है। इस पर हम पीछे बात करेंगे कि मनुष्यक भी वृक्षों जैसी ही खबरें अपने भीतर लिए चलता है। लेकिन उसे खोलने का ढंग उतना आसान नहीं है जितना वृक्ष को खोलने का ढंग आसान है। वृक्ष को काटकर जितनी सुविधा से हम पता लगा सकते उतनी सुविधा से आदमी को काटकर पता नहीं लगा सकते। आदमी को काटना सूक्ष्मा मामला है और आदमी के पास चित है इसलिए आदमी का शरीर उन घटनाओं को नहीं रिकार्ड करता, चित रिकार्ड करता है। वृक्षों के पास चित नहीं है। इसलिए शरीर ही उन घटनाओं को रिकार्ड करता है। एक और बात इस संबंध में ख्याभल में ले लेने जैसी है—जैसा मैंने कहा, ग्याकरह वर्ष में सूरज पर तीव्र रेडियो एक्टिविटी,तीव्र वैधुतिक तूफान चलते है—ऐसा प्रति ग्या रह वर्ष पर एक रिद्म,ठीक ऐसा ही एक दूसरा बड़ा रिद्म भी पता चलना शुरू हुआ है। और वह है नब्बे वर्ष का सूरज के ऊपर। और वह और हैरान करने वाला है।

 

और यह जो मैं कहा रहा हूं ये सब वैज्ञानिक तथ्य है। ज्यो।तिष इस संबंध में कुछ नहीं कहते है। लेकिन मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि उनके आधार पर ज्योशतिष को वैज्ञानिक ढंग से समझना आपके लिए आसान हो सकेगा। नब्बेह वर्ष का एक दूसरा वर्तुल है जो कि अनुभव किया गया है। उसके अनुभव की कथा बड़ी अद्भुत है।

 

इजिप्टै के एक सम्राट ने आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिको को कहा था कि नील नदी में जब भी जल घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्यो रा रखा जाए। अकेली नील एक ऐसी नदी है जिसकी चार हजार वर्ष की बायो ग्राफी है। उसकी जीवन कथा है पूरी। और किसी नदी की कोई बायो ग्राफी नहीं है। उसकी जीवन कथा है पूरी, कब इसमें इंच भर पानी बढ़ा है, उसका पूरा रिकार्ड है—चार हजार वर्ष फैर हों के जमाने से लेकर आज तक।

 

फरोह का अर्थ होता है—सूर्य, इजिप्ट भाषा में। फरोह, जो इजिप्टै के सम्राटों का नाम था, वह सूर्य के आधार पर है। और इजिप्टज में ऐसा ख्यांल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। और फरोह, जो कि सूर्य का भक्ते थे। उन्हों ने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए। सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकता हे। तो चार हजार साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंच भर पानी कब बढ़ा, इंच भर कब कम हुआ,कब उसमें पुर आया, कब पूर नहीं आया। कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी बही, इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच-इंच उपलब्ध है।

 

इजिप्टह के एक विद्वान तस्माहन ने पूरे नील की कथा लिखी और अब सूर्य के संबंध में वे बातें ज्ञात हो गयीं जो फैर हों के वक्तन ज्ञात नहीं थी। और जिसके लिए फैर हों ने कहा था। प्रतीक्षा करना। इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह सूरज से संबंधित है। और नब्बेा वर्ष की रिद्म का पता चलता है, हर नब्बे वर्ष में सूर्य पर अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम मृत्युा कहते हे—या जन्मे कह सकते हे। ऐसा समझ लें, सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और पैंतालिस वर्ष तक बूढा होता हे। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते है वह पैंतालीस वर्ष तक तो जवानी की तरफ बढते है क्लाइमैक्स की तरफ जाते है। सूरज जैसे जवान होता चला जाता है। और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है। उसकी उम्र जैसे नीचे ढलने-गिरने लगती है और नब्बेल वर्ष में सूर्य बिलकुल बूढ़ा हो जाता हे। नब्बे वर्ष में जब सूर्य बूढ़ा होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों का संबंध नब्बेल वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता हे। वह बड़ी भारी घटना है। क्यों्कि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वीह उससे कंपित हो जाए,यह बिलकुल स्वायभाविक है। लेकिन जब पृथ्वीो जैसी महाकाय वस्तुस भूकंपों से भर जाती है। तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ भी न होता होगा? ज्योैतिषी सिर्फ यही पूछते रहे है। वे कहते है, यह असंभव हे। पता हो तुम्हेंव या न हो लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती।

 

पैंतालीस वर्ष जब सूरज जवान होता है उस वक्त जो बच्चे पैदा होते है, उनका स्वाूस्थ अदभुत रूप से अच्छाी होगा। और जब पैंतालीस वर्ष सूरज बूढा होता है। उस वक्ता जो बच्चेह पैदा होंगे उनका स्वा‍स्य्र कभी भी अच्छाा नहीं हो पता। जब सूरज खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चेउ पैदा होते है उनकी हालत ठीक वैसी है जैसी पूरब को नाव ले जानी हो और पश्चि म को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डाँड़ चलाने पड़ते है, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते। फिर पाल खोलकर नाव नहीं ले जायी जा सकती, क्योंाकि उल्टेह बहना पड़ता है।

 

इस संबंध में अब वैज्ञानिकों को प्रतीत होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्थाी में आता है तब पृथ्वीं पर कम से कम बीमारियां होती है। और जब सूरज अपने उतार पर होता है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती है। पृथ्वी। पर पैंतालीस साल बीमारियां के होते है और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते है। नील ठीक चार हजार वर्षों में हर नब्बेा वर्ष में इसी तरह जवान और बूढी होती है। जब सूरज जवान होता है तब नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाला है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढा होने लगता है तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, फिर वह शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है।

 

आदमी इस विराट जगत में कुछ अलग-थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है। अब तक हमने जो भी श्रेष्ठितम घड़ियाँ बनाई है वह कोई भी उतनी टु द टाइम, इतनी ठीक से समय नहीं बताती जितनी पृथ्वी़ बताती है। पृथ्वीत अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पसन मिनट में एक चक्कंर पूरा करती है। उसी के आधार पर हमने चौबीस घंटे का हिसाब तैयार किया हुआ है। और हमने घड़ी बनायी है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह ठीक तेईस घंटे छप्पनन मिनट में एक चक्र पूरा करती हे। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं समझा गया था कि पृथ्वीन कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना था कि हमारे पास जाँचने के ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी।

 

लेकिन जब नब्बें वर्ष का वर्तुल पूरा होता है। सूर्य का तो पृथ्वीम की घड़ी एकदम डगमगा जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्या्रह वर्ष में जब सूरज पर उतार होता है—जब भी पृथ्वी अपनी यात्रा में नए-नए प्रभावों के अंतर्गत आती है तभी उसकी अंतर् घड़ी डगमगा जाती है। जब भी कोई नया प्रभाव, कोई नया काज्मिंक इन्फ्लुाएंस कोई महा तारा करीब हो जाता है तभी ऐसा हो जाता है। और करीब का मतलब, इस महा-आकाश में बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं। क्यों कि सब अदृश्य् संबंधों से गुँथा हुआ है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है क्योंककि जब हम कहते हैं, जरा-सा करीब आ जाए तो हम सोचते है जैसे कोई हमारे पास आदमी आ गया। नहीं फासले बहुत बड़े है। उन फ़ासलों में जरा सा भी अंतर पड़ जाता है। जो कि हमें कहीं पता भी नहीं चलेगा तो भी पृथ्वीस की कील डगमगा जाती है।

 

पृथ्वीी को हिलाने के लिए बड़ी शक्तिक की जरूरत है। इंच भर हिलाने के लिए भी तो महा शक्तियां जब गुजरती है पृथ्वीो के पास से, तभी वह हिल पाली है। लेकिन वह महा शक्तियां जब पृथ्वीा के पास से गुजरती है तो हमारे पास से भी गुजरती है। और ऐसा नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वीज कंपित होती है तो उस पर लगे वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा भी नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वी‍ कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्यस कंपित न हो—सब कंप जाता है। लेकिन कंपन इतने सूक्ष्मै है कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि पृथ्वीक कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण है। सेकेंड के हजार वे हिस्सेच में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते है। लेकिन आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं है। वह मामला ओर भी सूक्ष्मम है।

 

आदमी इतना सूक्ष्मर है, और होना जरूरी है, अन्यरथा जीना मुश्किभल हो जाएगा। अगर चौबीस घंटे आपको चारों और के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न पाएंगे। आप जी सकते है तभी, जब कि आपको आस-पास के प्रभावों के कोई पता नहीं चलता । एक और नियम ये है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्तिय से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है। जैसे समझ लें कि बुखार चढ़ता है तो 98 डिग्री हमारी एक सीमा है। और 110 डिग्री हमारी दूसरी सीमा है। 12 डिग्री में हम जीते हे। 90 डिग्री से नीचे गिर जाए तापमान तो हम समाप्त हो जाते है। उधर 110 डिग्री के बाद जाए तो हम समाप्तग हो जाते है। लेकिन क्याो आप समझते है, दुनिया में गर्मी 12 डिग्री की ही होती है? आदमी 12 डिग्री के भीतर ही जीता है। दोनों सीमा और के इधर-उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक बैलेंस, संतुलन है। 98 और 110 के बीच उसको अपने को सम्हाउले रखना है। ठीक ऐसा ही बैलेंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं आप सुन रहे है—अगर मैं बहुत धीमे बो लूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बो लूं और आप न सुन पाएँ। लेकिन यह आपको यह ख्यातल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएँ। आपको कठिन लगेगा क्यों कि जोर से बोलेंगे तो सुनाई पड़ेगा ही। नहीं वैज्ञानिक कहते है हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी नहीं सुन पाते, उससे ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आप पास भंयकर आवाजें गुजर रही है। लेकिन हम सुन नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित होता है या बिखरता है तो भयंकर गर्जना वाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती है। अगर हम उनको सुन पाएँ तो हम तत्काकल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित है क्यों कि हमारे कान सीमा में ही सुनते है। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है बस उतने को सुन लेते है। देखने के मामले में भी हमारी वह सीमा है। हमारी सभी इंद्रियाँ एक दायरे के भीतर है, न उसके ऊपर न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ताव आपसे ज्याीदा सूंघ लेता है। उसका दायरा सूंघने का आपसे बड़ा है। जो आप नहीं सूंघ पाते,कुत्ताय सूंघ लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन पाती है। उसके सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोड़ा चौककर खड़ा हो जाता हे। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको सारी गंध आने लगें, जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही है तो आप विक्षिप्ता हो जाएंगे। मनुष्य एक कैप्सूंल में बंद है, उसका सीमित है, उसकी बाउंडरी है। आप रेडियों लगाते है और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्यास आप सोचते है, जब रेडियों लगाते है तब आवाज आनी शुरू होती है/ आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है। आप रेडियो लगाएँ या न लगाए। लगाते है तब रेडियों पकड़ लेता है, बहती तो पूरे वक्तर रहती है। दुनिया में जितने रेडियो है, सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही है। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप रेडियों नहीं लगाते है, तब भी गुजर रही है। लेकिन आपको सुनाई नहीं पड़ रही है।

 

जगत में न मालूम कितनी घ्वानियां है जो चारों तरफ हमारे गुजर रही है। भंयकर कोला हाल है—वह पूरा कोलाहल हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते हे। ध्यारन रहे, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते हे। वह हमारे रोएं-रोएं को स्प र्श करता है। हमारे ह्रदय की धड़कन-धड़कन को छूता है। हमारे स्नाेयु-स्नारयु को कंपा जाता है। वह अपना काम तो कर ही रहा है। उसका काम तो जारी है। जिस सुगंध को आप नहीं सूंघ पाते उसके अणु आपके चारों तरफ अपना काम तो कर ही जाते हे। और अगर उसके अणु किसी बीमारी को लाए है तो आप को दे जाते है। आपकी जानकारी आवश्यसक नहीं है। किसी वस्तुउ के होने के लिए।

 

ज्योेतिष का कहना है कि हमारे चारों तरफ ऊर्जाओं के क्षेत्र है, एनर्जी फील्डसस है और वह पूरे समय हमें प्रभावित कर रहे है। जैसे ही बच्चार जन्म लेता है तो वह जगत के प्रति, जगत प्रभावों के प्रति फंस जाता है। जन्मै को वैज्ञानिक भाषा में हम कहें एक्स पोजर, जैसे कि फिल्मग को हम ऐक्सपोज करते है। कैमरे में, जरा सा शटर आप दबाते है एक क्षण के लिए कैमरे की खिड़की खुलती है और बंद हो जाती है। उस क्षण में जो भी कैमरे के समक्ष आ जाता है। वह फिल्मी पर अंकित हो जाता है। फिल्मष ऐक्सपोज हो गई। अब दुबारा उस पर कुछ अंकित न होगा—और अब यह फिल्मज उस आकार को सदा अपने भीतर लिए रहेगी।

 

जिस दिन मां के पेट में पहली दफा गर्भाधान होता है तो पहला एक्सापोजर होता है। जिस दिन मां के पेट से बच्चाे बाहर आता है, जन्म लेता है, उस दिन दूसरा एक्सिपोजर होता है। और वह दोनों एक्पोिजर संवेदनशील चित पर फिल्मन की भांति अंकित हो जाते है। पूरा जगत उस क्षण में बच्चाि अपने भीतर अंकित कर लेता है। और उसकी एम्पेतथीज, समानुभूति निर्मित हो जाती है।

 

ज्‍योतिष इतना ही कहता है कि यदि यह बच्चाी जब पैदा हुआ है तब अगर राज है...ओर जानकर आप हैरान होंगे की सत्तषर से लेकर नब्बे प्रतिशत बच्चेद रात में पैदा होते है, यह थोड़ा हैरानी की बात है….क्योंाकि आमतौर से पचास प्रतिशत होने चाहिए। चौबीस घंटे का हिसाब है, इसमें कोई हिसाब भी न हो,बेहिसाब भी बच्चेह पैदा हों, तो बारह घंटे रात, बारह घंटे दिन,साधारण संयोग और कांबिनेशन से ठीक है, पचास-पचास प्रतिशत हो जाएं। कभी भूल चूक दो चार प्रतिशत इधर-उधर हो,लेकिन नब्बेि प्रतिशत तक बच्चेर रात में जन्मू लेते है—दस प्रतिशत तक बच्चेध मुशिकल से दिन में जन्म् लेते है। अकारण नहीं हो सकती यह बात, इसके पीछे बहुत कारण है। समझें, एक बच्चा रात में जन्म लेता है तो उसका जो एक्सबपोजर है, उसके चित की जो पहली घटना है जगत में अवतरण की वह अंधेरे से संयुक्त होती है। प्रकाश से संयुक्ता नहीं होती। यह तो उदाहरण के लिए कह रहा हूं, क्यों कि बात तो और विस्तीजर्ण है। सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। उसके चित पर जो पहली घटना है वह अंधकार है। सूर्य अनुपस्थितत है। सूर्य की ऊर्जा अनुपस्थिसत है। चारों तरफ जगत सोया हुआ है। पौधे अपनी पत्तितयों को बंद किए हुए है। पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर आंखे बंद किए हुए अपने घोंसलों में छिप गए है। सारी पृथ्वीज पर निद्रा है। हवा के कण-कण में चारों तरफ नींद है। सब सोया हुआ है। जागा हुआ कुछ भी नहीं है। वह पहला इम्पेहक्टख है बच्चेो पर।

 

अगर हम बुद्ध और महावीर से पूँछें तो वह कहेंगे कि अधिक बच्चेब इसलिए रात में जन्मछ लेते है क्योंगकि अधिक आत्माेएं सोयी हुई हे—एस्लीचप है। दिन को वे नहीं चुन सकते पैदा होने के लिए। दिन को चुनना कठिन है। और हजार कारण है, एक कारण महत्वसपूर्ण है यह भी—अधिकतम लोग सोये हुए है। अधिकतम लोग तंद्रित है, अधिकतम लोक निद्रा में है। अधिकतम लोग आलस्यग में प्रमाद में है। सूर्य के जागने के साथ उनका जन्मि ऊर्जा का जन्म होगा,सूर्य के डूबे हुए अंधेरे की आड़ में उनका जन्म नींद का जन्म होगा। रात में एक बच्चान पैदा हो रहा है तो एक्सएपोजर एक तरह का होने वाला है। जैसे कि हमने अंधेरे में एक फिल्म खोली हो या प्रकाश में एक फिल्मज खोली हो तो एक्स पोजर भिन्नअ होने वाले है। एक्सपोजर की बात थोड़ी और समझ लेनी चाहिए क्योंककि वह ज्योएतिष के बहुत गहराइयों से संबंधित है।

 

जो वैज्ञानिक एक्सोपोजर के संबंध में खोज करते है वे कहते है कि एक्ससपोजर की घटना बहुत बड़ी है, वह छोटी घटना नहीं है। क्योंमकि जिंदगी भर वह आपका पीछा करेगी। हम कहते है कि मां के पीछे भाग रहा है। वैज्ञानिक कहते है, नहीं, मां से कोई संबंध नहीं है। एक्सपोजर का सवाल है। हम कहते, अपनी मां के पीछे भाग रहा है लेकिन वैज्ञानिक कहते है। नहीं, पहले हम भी ऐसे सोचते थे कि मां के पीछे भाग रहा है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और अब सैकड़ों प्रयोग किए गए तो बात स्पंष्टग हो गयी है।

 

वैज्ञानिकों ने सैकड़ों प्रयोग किए। मुर्गी का बच्चाब जन्मह रहा है। अंडा फूट रहा है, चूजा बहार निकल रहा है तो उन्हों़ने मुर्गी को हटा लिया और उसकी जगह एक रबर का गुब्बा रा रख दिया। बच्चेग ने जिस चीज को पहली दफा देख वह रबर का गुब्बार था, मां नहीं थी। आप चकित होंगे यह जानकर कि वह एक्सकपोजर हो गया। इसके बाद वह रबर के गुब्बा रे को ही मां की तरह प्रेम कर सका । फिर वह अपनी मां को नहीं प्रेम कर सका। रबर का गुब्बाारा हवा में वह गुब्बार उड़ेगा यह सरकेगा,तो वह पीछे भागेगा। उसकी मां भागती रहेगी तो उसकी फिक्र ही नहीं करेगा। रबर के गुब्बागरे के प्रति वह आश्चर्य जनक रूप से संवेदनशील हो गया। जब थक जाएगा तो गुब्बा रे के पास टिककर बैठ जाएगा। गुब्बापरे को प्रेम की कोशिश करेगा। गुब्बादरे में चोंच लड़ाने की कोशिश करेगा—लेकिन मां से नहीं।

 

इस संबंध में बहुत काम लारेंज नाम के वैज्ञानिक ने किया है और उसका कहना है वह जो फ़र्स्ट मूवमेंट ऑफ एक्संपोजर है बड़ा महत्व्पूर्ण है। वह मां से इसलिए संबंधित हो जाता है—मां होने की वजह से नहीं, फ़र्स्ट एक्सतपोजर की वजह से। इसलिए नहीं कि वह मां है। इसलिए उसके पीछे दौड़ता है; इसलिए कि वह सबसे पहले उसको उपलब्धव होती है—इसलिए उसके पीछे दौड़ता है।

 

अभी इस पर काम चल रहा है। जिन बच्चोंे को मां के पास बड़ा न किया जाए वह किसी स्त्री को जीवन में कभी प्रेम करने को समर्थ नहीं हो पाता—एक्सापोजर ही नहीं हो पाता। अगर एक बच्चे‍ को उसकी मां के पास बड़ा ने किया जाए तो स्त्री का जो प्रतिबिंब उसके मन में बनना चाहिए वह बनता ही नहीं। और अगर पश्चि़म में आज होमोसेक्सुअल टी बढ़ती हुई प्रतीत हो रही है। उसके एक बुनियादी कारणों में वह भी एक कारण है। हेट्रोसेक्सुकअल, विजातीय यौन के प्रति जो प्रेम है वह पश्चिहम में कम होता जा रहा है। और सजातीय यौन के प्रति प्रेम बढ़ता चला जाता है, जो कि विकृति है—लेकिन वह विकृति होगी, क्यों्कि दूसरे यौन के प्रति जो प्रेम है पुरूष का स्त्री के प्रति और स्त्रीह का पुरूष के प्रति वह बहुत सी शर्तों के साथ है। पहला तो एक्सौपोजर जरूरी है। बच्चाष पैदा हो तो उसके मन पर क्याह एक्सेपोजर हो, अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। दुनिया में स्त्रीयां तब तक सुखी न हो पाएंगी जब तक उनका एक्सापोजर मां के साथ हो रहा हे। उनका प्रथम एक्सापोजर पुरूष के साथ होना चाहिए। पहला इम्पेक्ट लड़की के मन पर पिता का पड़ना चाहिए तो ही वह किसी पुरूष को भरपूर मन से प्रेम करने में समर्थ हो पाएगी । अगर पुरूष स्त्री से जीत जाता है तो उसका कुल कारण इतना है कि लड़कियां दोनों ही मां के पास बड़े होते हे।

 

लड़के को एक्सलपोजर तो बिलकुल ठीक होता है। स्त्री के प्रति, लेकिन लड़की का एक्स पोजर बिलकुल ठीक नहीं होता। इसलिए जब तक दुनिया में लड़की को पिता का एक्स पोजर नहीं मिलता तब तक स्त्रीयां कभी भी पुरूष के समकक्ष खड़ी नहीं हो सकती है। न राजनीति के द्वारा, न नौकरी के द्वारा, न आर्थिक स्व्तंत्रता के द्वारा। क्यों कि मनोवैज्ञानिक अर्थों में एक कमी उनमें रह जाती है। अब तक की पूरी संस्कृभति उस कमी को पूरा नहीं कर पायी। अगर एक छोटा सा गुब्बारा मुर्गी के लिए इतना प्रभावी हो जाता है इतना ज्याादा कि उनका चित...कि उसका चित सदा के लिए उससे निर्मित हो जाता है। तो ज्यो्तिष कहता है। जो भी चारों तरफ मौजूद है, द होल यूनिवर्स वह सभी का सभी उस प्रथम एक्सापोजर के क्षण में, उस चित के खुलने के क्षण में भीतर प्रवेश कर जाता है। और जीवन भर की सिम्पैसथीज ओर एन्टीेपैथीज निर्मित हो जाती है। उस क्षण जो नक्षत्र पृथ्वीी को चारों तरफ से घेरे हुए है वह सभी अनंत अर्थों में चित को संकेत कर जाते है। नक्षत्र घेरे हुए है, उनका कुल मतलब इतना है कि उस क्षण पृथ्वीच के ऊपर उन नक्षत्रों की रेडियों एक्टिविटी का प्रभाव पड़ रहा है।

 

अब वैज्ञानिक मानते है कि प्रत्येपक ग्रह की रेडियो एक्टिविटी अलग हे। जैसे—वीनस, उससे जो रेडियो सक्रिय तत्वन हमारी तरफ आते है। वह चाँद के रेडियो सक्रिय तत्वोंह से भिन्नह है। जैसे जुपिटर—उससे जो रेडियो तत्वत हम तक आते है वह सूर्य से रेडियो तत्वों से भिन्नह है। क्योंजकि इन प्रत्येजक ग्रहों के पास अलग तरह की गैसों और अलग तरह के तत्वोंस का वातावरण है। उन सबसे अलग-अलग प्रभाव पृथ्वी् की तरफ आते है। और जब एक बच्चाह पैदा हो रहा है तो पृथ्वीस के चारों तरफ क्षितिज को घेरकर खड़े हुए जो भी नक्षत्र है—ग्रह है, उपग्रह है, दुर आकाश के महा तारे है, वे सब के सब उस एक्सरपोजर के क्षण में बच्चेे के चित पर गहराइयों ते प्रवेश कर जाते है। फिरा उसकी कमज़ोरियाँ, उसकी ताक़तें, उसका सामर्थ्य सब सदा के लिए प्रभावित हो जाता है।

 

अब जैसे हिरोशिमा में एटम बम के गिरने के बाद पता चला, उसके पहले पता नहीं था। हिरोशिमा में एटम जब तक नहीं गिरा था तब तक इतना ख्यावल नहीं था कि एटम गिरेगा तो लाखों लोग मरेंगे। लेकिन यह पता नहीं था की पीढ़ियों तक आनेवाले बच्चे प्रभावित हो जाएंगे। हिरोशिमा और नागासाकी में जो लोग मर गए—मर गए,वह तो क्षण की बात थी। समाप्तह हो गई। लेकिन हिरोशिमा में जों वृक्ष बच गए, जो जानवर बच गए, जो पक्षी बच गए, जो मछलियाँ बच गई, जो आदमी बच गए वे सदा के लिए प्रभावित हो गए।

 

अब वैज्ञानिक कहते है कि दस पीढ़ियों में हमें पूरा अंदाजा लग पायेगा कि क्याह-क्याा परिणाम हुए। क्योंजकि इनका सब कुछ रेडियो एक्टिविटी से प्रभावित हो गया। अब जो स्त्री् बच गई उसके शरीर में जो अंडे है वह प्रभावित हो गए है। अब वह अंडे कल उनमें से एक अंडा बच्चाक बनेगा वह बच्चाह वैसा ही बच्चा नहीं है। वह लँगड़ा हो सकता है, लूला हो सकता है, अंधा हो सकता है। उसकी चार आंखें भी हो सकती है। आठ आंखे भी हो सकती है। कुछ भी हो सकता है, अभी हम कुछ भी नहीं कह सकते वह कैसा होगा। उसका मस्तिोष्कब बिलकुल रूग्णक भी हो सकता है। प्रतिभाशाली भी हो सकता है। वह जीनियस भी पैदा हो सकता है। जैसा जीनियस कभी पैदा न हुआ हो। अभी हमें कुछ भी पता नहीं कि वह क्याक होगा। इतना पक्काी पता है कि जैसा होना चाहिए—साधारणत: आदमी वैसा वह नहीं होगा।

 

अगर एटम की रेडियो उर्जा ऐसा कर सकती है जो कि बहुत छोटी ताकत है—हमारे लिए वह बहुत बड़ी है। एक एटम एक लाख बीस हजार आदमियों को मार पाया हिरोशिमा और नागासाकी में—फिर भी तुलनात्म क दृष्टिक में वह बहुत छोटी ताकत है। सूर्य के ऊपर जो ताकत है उसका हम इससे कोई हिसाब नहीं लगा सकते है—जैसे अरबों एटम बम एक साथ फूट रहे हो। उतनी रेडियो एक्टिविटी सूरज के ऊपर है: और असाधारण है यह।

 

क्योंरकि सूरज चार अरब वर्षों से तो पृथ्वी को गर्मी दे रहा है। और उससे पहले से और अभी भी वैज्ञानिक कहते है कि कम से कम चार हजार वर्ष तक तो उसके ठंडे होने की कोई भी संभावना नहीं। प्रतिदिन इतनी गर्मी...और सूरज दस करोड़ मील दूर है पृथ्वी। से। हिरोशिमा में जो घटना घटी है उसका प्रभाव दस मील से ज्या दा दूर नहीं पडा। दस करोड़ मील दूर सूरज है चार अरब वर्षो से तो वह हमें सब सारी गर्मी दे रहा है। फिर भी अभी रिक्तस नहीं हुआ। पर यह सूरज कुछ भी नहीं है। इससे भी महा सूर्य है। ये सब तारे जो है आकाश में, ये महा सूर्य है। और इसमें से प्रत्ये क से अपनी व्यैक्ति गत और निजी क्षमता की सक्रियता हम तक प्रवाहित होती है।

 

एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, जो अंतरिक्ष में फैलती ऊर्जाओं के संबंध में अध्य यन कर रहा है। माइकेल गाकलिन, उसका कहना है कि जितनी ऊर्जाऐं हमें अनुभव में आ रही है। उनमें से हम एक प्रतिशत के संबंध में भी पूरा नहीं जानते। जब से हमने कृत्रिम उपग्रह छोड़े है पृथ्वीम के बाहर,तब से उन्हों ने हमें इतनी खबरें दी है कि हमारे पास न शब्द है उन खबरों को समझने के लिए,न हमारे पास विज्ञान है। और इतनी ऊर्जाऐं इतनी एनजी्र चारों तरफ बह रही होंगी; इसकी हमें कल्पनना ही नहीं थी। इस संबंध में एक बात और ख्यारल में ले लेनी जरूरी है।

 

ज्योइतिष कोई विकसित होता हुआ नया विज्ञान नहीं है। हालत उल्टी है। ताजमहल अगर आपने देखा है तो यमुना के उस पार कुछ दीवारें आपको उठी हुई दिखाई पड़ी होंगी। कहानी यह है कि शाहजहाँ न मुमताज के लिए तो ताजमहल बनवाया और अपने लिए,जैसा संगमरमर का ताजमहल है ऐसा अपनी कब्र के संगमूसा का काला पत्थहर का महल वह यमुना के उस पार बना रहा था। लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया। ऐसी कथा सदा से प्रचलित थी, लेकिन अभी इतिहासज्ञों ने खोज की है तो पता चला है कि वह जो उस तरफ दीवारें उठी खड़ी है। वह किसी बनने वाले महल दीवारें नहीं है। वह किसी बहुत बड़े महल की गिर चुका है। खंडहर है, पर उठती दीवारें और खंडहर एक से मालूम पड़ सकते है। एक नये मकान की दीवारें उठ रही है—अधूरी है, मकान बना नहीं है। हजारों सालों बाद तय करना मुशिकल हो जाएगा कि नये मकान की बनी दीवारें है या किसी बने हुए मकान की। जो गिर चूका—उसके बचे खुचे अवशोष है,खंडहर है।

 

पिछले तीन सौ सालों से यही समझा जाता था कि वह जो दूसरी तरफ महल खड़ा हुआ हे, वह शाहजहाँ बनवा रहा था,वह पूरा नहीं हो पाया। लेकिन अभी जो खोजबीन हुई है उससे पता चलता है। कि वह महल पूरा था। और न केवल यह पता चला है। वह महल पूरा था, बल्किल यह भी पता चलाता है कि ताजमहल शाहजहाँ ने कभी नहीं बनवाया। वह भी हिंदुओं का बहुत पुराना महल है, जिसको उसने सिर्फ कनवर्ट किया। जिसको सिर्फ थोड़ा सा फर्क किया। और कई दफा इतनी हैरानी होती है। कि जिन बातों को हम सुनने के आदी हो जाते है फिर उससे भिन्न‍ बात को हम सोचते भी नहीं।

 

ताज महल जैसी एक भी कब्र दुनिया में किसी ने नहीं बनवायी। कब्र ऐसी बनायी भी नहीं जाती। क्रब ऐसी बनायी ही नहीं जाती। ताजमहल के चारों तरफ सिपाहियों के खड़े होने के स्था।न है। बंदूकें और तोप लगाने के स्थाोन है क्रबों की बंदूकें और तोपें लगाकर कोई रक्षा नहीं करनी पड़ती। वह महल है पुराना उसको सिर्फ कनवर्ट किया गया है। वह दूसरी तरफ भी एक पुराना महल है जो गिर गया, जिसके खंडहर शोष रह गए।

 

ज्योतिष भी खंडहर की तरह है। एक बहुत बड़ा महल था, पूरा विज्ञान था, जो ढह गया। कोई नयी चीज नहीं है। कोई नया उठता मकान नहीं है। लेकिन जो दीवारें रह गयी है उनसे कुछ पता नहीं चलता कि कितना बड़ा महल उसकी जगह रहा होगा। बहुत बार सत्य मिलते है और खो जाते है।

 

अरिस्टिकारस नाम का एक यूनानी ने जीसस से दो सौ वर्ष पूर्व यह सत्यि खोज निकाला था कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वीए केंद्र नहीं है। अरिस्टिपकारस का यह सूत्र, हेलियो सेंट्रिक सिद्धांत कि सूरज केंद्र पर है। जीसस के तीन सौ वर्ष पहले खोज निकाला गया था। लेकिन जीसस के सौ वर्ष बाद टोलिमी ने इस सूत्र को उलट दिया और पृथ्वीि को फिर केंद्र बना दिया। और फिर दो हजार साल लग गए केपलर और कोपरनिसक को खोजने में वापस, कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वील केंद्र नहीं है। दो हजार साल तक अरिस्टिकारस का सत्ये दबा पडा रहा। दो हजार साल बाद जब कोपरनिसक ने फिर से कहा तब अरिस्टिकारस की किताबें खोजी गयी। लोगों ने कहा, यह तो हैरानी की बात है।

 

अमरीका कोलंबस ने खोजा,ऐसा पश्चिखम के लोग कहते है। एक बहुत प्रसिद्ध मजाक प्रचलित है, ऑस्कर वाइल्ड, का। वह अमरीका गया हुआ था। उसकी मान्यतता थी कि अमरीका और भी बहुत पहले, खोजा जा चुका है। और यह सच है। यह सच्चाआई है कि अमरीका बहुत दफा खोजा जो चुका है और पुन: पुन: खो गया। उससे संबंध सूत्र टूट गए।

 

एक व्यैक्तिो ने ऑस्कर वाइल्डह को पूछा कि हम सुनते है कि आप कहते है, अमरीका पहले ही खोजा जा चुका है। तो क्या‍ आप नहीं मानते कि कोलंबस ने पहली खोज की। और अगर कोलंबस ने पहली खोज नहीं की तो अमरीका बार-बार क्योंो खो गया। तो ऑस्कर वाइल्ड ने मजाक में कहा कि कोलंबस ने पुन: खोज की ही है, रि-डिस्कइवर्ड अमेरिका, इट वाज डिस्क वर्ड से मेनी टाईम, बट एवरी टाइम हश्डो-अप। हर बार इसको दबाकर चुप रखना पडा। क्योंवकि उपद्रव को बार-बार दबाना यहाँ भुलाना जरूरी था।

 

महाभारत अमरीका की चर्चा करता है। अर्जुन की एक पत्नी मेक्सिबको की लड़की है। मेक्सि को में जो प्राचीन मंदिर है वह हिंदू मंदिर है जिन पर गणेश की मूर्तियां तक खुदी हुई है। बहुत बार सत्यि खोज लिए जाते है और खो जाते हे। बहुत बार हमें सत्यक पकड़ में आ जाता है, फिर खो जाता है। ज्योफतिष उन बड़े से बड़े सत्यों में से एक है जो पूरा का पूरा ख्याैल में आ चुका ओ खो गया है। उसे फिर से ख्याजल में लाने के लिए बड़ी कठिनाई है। इसलिए मैं बहुत सी दिशाओं से आपसे बात कर रहा हूं। क्योंतकि ज्योेतिष पर सीधी बात करने का अर्थ होता हे। कि वह जो सड़क पर ज्योरतिषी बैठा हे, शायद मैं उस संबंध में कुछ कह रहा हूं। जिसको आप चार आने देकर और अपना भविष्य। फल निकलाव आते है। शायद उसके संबंध में या उसके समर्थन में कुछ कह रहा हूं।

 

नहीं ज्योोतिष के नाम पा सौ में से निन्याबन्नकबे धोखाधड़ी है। ओ वह जो सौवां आदमी हे, निन्यातन्न बे को छोड़कर उसे समझना बहुत मुश्किल है। क्योंीकि वह कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही। क्यों कि वह जानता है कि ज्योकतिष बहुत बड़ी घटना है। इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझक कर ही वहां पैर रख सकता है। जब मैं ज्यो तिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो मेरा प्रयोजन है कि मैं उसे पूरे-पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूँ। इस महल के । तो फिर आप भीतर बहुत आश्वोस्त होकर प्रवेश कर सकें। और मैं जब ज्योरतिष की बात कर रहा हूं तो ज्योहतिषी की बात नहीं कर रहा हूं। उतनी छोटी बात नहीं है। पर आदमी की उत्सुयकता उसीमें है कि उसको पता चल जाए कि उसकी लड़की की शादी होगी कि नहीं होगी। इस संबंध में यह भी आपको कह दूँ कि ज्योउतिष के तीन हिस्सेक है। एक—जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्तीिभर फर्क नहीं होता। वह सर्वाधिक कठिन है उसे जनना । फिर उसके बाहर की परिधि हे—नान एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते है। अगर हम उसी को जानने को उत्सुिक होते है और उन दोनों के बीच में एक परिधि है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते है। न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होगें। तीन हिस्सेउ करते है। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई अपाय नहीं है। धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्यस की खोज के लिए ही ज्यो तिष की ईजाद की—उसके बाद दूसरा है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य—अगर जान लेंगे तो बदल सकते है। अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा तो जो होना है वहीं होगा। ज्ञान होगा तो अल्टलरनेटिव्जं, विकल्प् है—बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस यह है—नान एसेंशियल उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है। लेकिन हम जिस ज्योेतिष की बात समझते है। वह नान एसेंशियल का ही मामला है।

 

एक आदमी कहता है, मेरी नौकरी लग जाएगी या नहीं लग जाएगी। चाँद-तारों के प्रभाव से आपकी नौकरी के लगने, न लगने को कोई भी गहरा संबंध नहीं है। एक आदमी पूछता है मेरी शादी हो जाएगी या नहीं हो जाएगी। शादी के बिना भी समाज हो सकता है। एक आदमी पूछता है कि मैं गरीब रहूंगा कि अमीर रहूंगा। एक समाज कम्युकनिस्टी हो सकता है। कोई गरीब और अमीर नहीं होगा। ये नान एसेंशियल हिस्से है जो हम पूछते है। एक आदमी पूछता है कि अस्सीह साल में मैं सड़क पर से गुजर रहा था। और एक संतरे के छिलके पर पैर पड़ कर गिर पडा तो मेरे चाँद तारे का इसमें कोई हाथ है या नहीं। अब चाँद-तारे से तय नहीं किया जा सकता कि फंला-फंला ना के संतरे से और फंला-फंला सड़क पर आपका पैर फिसले। वह निपट गँवारी है। लेकिन हमारी उत्सु कता इसमें है कि आज हम निकलेंगे सड़क पर, छिलके पर पैर पड़ कर फिसल तो नहीं जाएगा। यह नान एसेंशियल है। यह हजारों कारणों पर निर्भर है लेकिन इसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। इसका बी इंग से, आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह घटनाओं की सतह है।

 

ज्यो्तिष से इसका कोई लेना देना नहीं है। और चुंकी ज्योईतिष इस तरह की बात चीत में लगे रहते है। इसलिए ज्योेतिष का भवन गिर गया। ज्योीतिष के भवन के गिर जाने का कारण यही हुआ। कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राज़ी नहीं हो सकता है, कि मैं जिस दिन पैदा हुआ उस दिन लिखा था कि मरीन ड्राइव पर फलां-फलां दिन एक छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा। और फिसल जाऊँगा। न तो मेरे फिसलने का चाँद तारों से प्रयोजन है, न उस छिलके का कोई प्रयोजन है। इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योेतिष बदनाम हुआ। और हम सबकी उत्सुपकता यहीं है। कि ऐसा पता चल जाए। इससे कोई संबंध नहीं है। सेमी एसेंशियल है कुछ बातें जैसे—जन्मस मृत्युं सेमी एसेंशियल है। अगर आप इसके बाबत पूरा जान लें तो उसमें फर्क हो सकता है। और न जानें तो फर्क नहीं होगा। चिकित्साा की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी तो हम आदमी की उम्र लंबा कर लेंगे—कर रहे है। अगर हमारी एटम बम की खोज-बीन और बढ़ती चली गयी तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार डालेंगे—मारा है। यह सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जगत है। जहां कुछ चीजें हो सकती है, नहीं भी हो सकती है। अगर जान लेंगे तो अच्छाी है। क्यों कि विकल्प चुने जा सकते है। इसके बाद एसेंशियल अनिवार्य का जगत है। वहां कोई बदलाहट नहीं होती। लेकिन हमारी उत्सुवकता पहले तो नान एसेंशियल में रहती है। कभी शायद किसी की सेमी एसेंशियल तक जाती है। वह जो एसेंशियल है, अनिवार्य है, जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं, उस केंद्र तक हमारी पकड़ नहीं जाती है। न हमारी इच्छा जाती है।

 

महावीर एक गांव से गुजर रहे है। और महावीर का एक शिष्यल मखनी गोशालक उनके साथ है, जो बाद में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते है। गोशालक महावीर से कहता है। कि सुनिये, यह पौधा लगा हुआ है—क्याो सोचते है आप, यह फूल ते पहुँचेगा। इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे, यह पौधा बचेगा या नहीं बचेगा। इसका भविष्यल है या नहीं। महावीर आँख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते है। गोशालक पूछता है, कहिए आँख बंद करने से क्याँ होगा। टालिए मत। उसे पता भी नहीं कि महावीर आँख बंद करके क्योंच खड़े हो गए है। वह एसेंशियल की खोज कर रहे है। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है। इस पौधे की आत्माह में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता। कि क्याी होगा। आँख खोलकर महावीर कहते है कि यह पौधा फूल तक पहुँचेगा। गोशालक ने उस सामने ही पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है, और खिल खिलाकर हंसता हे। क्यों कि इससे ज्यामदा और अतर्क्यं प्रमाण क्या। होगा। महावीर के लिए अब कुछ और कहने की जरूरत क्याम है। उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, उसने कहा कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुस्कराते हे। वे दोनों अपने रास्तेे चले जाते है।

 

साद दिन के बाद वापस उसी रास्तेन पर लौट रहे है। जैसे ही महावीर और वे दोनों उस दिन गांव में पहुंचे थे वैसे ही बड़ी भंयकर वर्षा हुई थी। सात दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे है। जब लौटते है तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गए है जहां वे सात दिन पहले आँख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गयीं और पौधा खड़ा हो गया। महावीर फिर आँख बंद करके उसके पास खड़े हो गए। गोशालक बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आँख खोली, गोशालक ने पूछा कह हैरान हूं, आश्चपर्य, इस पौधे को हम उखाड़ कर फेंक गए, फिर खड़ा हो गया। महावीर ने कहा, यह फूल तक पहुँचेगा। और इसीलिए मैं आँख बंद करके ओर खड़े होकर उसे देखा। इसकी आंतरिक पोटेंशियलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या, है। उसके भीतर की स्थिति क्या हे। तुम इसे बाहर से फेंक दोगे। उठाकर तो भी यह अपने पैर जमाकर खड़ा हो सकेगा। यह कहीं आत्मयघाती तो नहीं है—सुसाइडल इंस्टिंोक्टे तो नहीं है इस पौधे में, कहीं यह मरने को उत्सुीक तो नहीं है। अन्यंथा तुम्हालरा सहारा लेकर मर जाएगा। यह जीने को तत्पमर है। अगर यह जीने को तत्प र है तो जिएगा ही। मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़कर फेंक दोगे।

 

गोशालक ने कहा, आप क्याम कहते है। महावीर ने कहा जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी पास खड़े थे, तुम भी दिखायी पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि तुम उसे उखाड़कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है। इसके पास आत्मज-बल कितना है। यह कहीं मरने को तो उत्सुकक नहीं है कि कोई बहाना लेकर मर जाए तो तुम्हाारा बहाना लेकर भी मर सकता है। अन्योथा तुम्हाकरा उखाड़कर फेंका गया पौधा पुन: जड़ें पकड़ सकता है। गोशालक को दुबारा उस पौधे को उखाड़ कर फेंकने की हिम्मअत न पड़ी—डरा। पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था। इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े। गोशालक रास्ते‍ में पूछने लगा, आप हंसते क्योंर हो। महावीर ने कहा, मैं सोचता था कि देखें तुम्हा री सामर्थ्य कितनी है। तुम दुबारा इसे उखाड़कर फेंकते हो या नहीं। गोशालक ने पूछा के आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़ कर फेंकूंगा या नहीं, तक महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। उखाड़ कर फेंक भी सकते हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था। उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे,वह अनिवार्य था। वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। यह तुम पर निर्भर हे। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो—हार गए। महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण यह पौधा भी था।

 

जिस ज्योजतिष की मैं बात कर रहा हूं उसका संबंध अनिवार्य से एसेंशियल से फाउण्ड़ेयशनल से है। आपकी उत्सु्कता ज्याकदा से ज्याहदा सेमी एसेंशियल तक आती है। पता लगाना चाहते हे कि कितने दिन जियूंगा, मर तो नहीं जाऊँगा,जीकर क्यास करूंगा। जी ही लुंगा तो क्याह करूंगा, आपकी उत्सुजकता नहीं पहुँचती। मरूंगा तो मरने के बाद क्याी करूंगा। इस तक भी आपकी उत्सुिकता नहीं पहुँचती। घटनाओं तक पहुँचती है, आत्मानओं तक नहीं पहुँचती। जब मैं जी रहा हूं तो यह तो घटना है सिर्फ—जीकर मैं क्या हूं। वह मेरी आत्माा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सबकी घटना होगी। लेकिन मरते क्षण में मैं क्याव होऊंगा, क्यास करूंगा। मरने के क्षण में हमारी स्थि ति सब से भिन्नन होगी। कोई मुस्कराते हुए भी मर सकता है। मुल्लाह नसरूदीन से कोई कुछ पूछता है, और वह अब मरने के करीब है। उससे कोई पुछता है। आपका क्याै ख्यादल है। मुल्लाा जब लोग पैदा होते है तो कहां से आते है? मरते है तो कहां जाते है? मुल्लाा ने कहां, जहां तक अनुभव की बात है, मैंने लोगों को पैदा होते वक्तो रोते ही देखा हे। और मरते वक्तम रोते ही जाते देखा हे। अच्छीह जगह से न आते है न अच्छी जगह जाते है। इनको देखकर जो अंदाज लगता है न अच्छीा जगह से आते है न अच्छीआ जगह जोत है। आते है तब भी रोते हुए मालूम पड़ते है। जाते है तब भी रोते हुए मालूम पड़ते है।

 

लेकिन नसरूदीन जैसा आदमी हंसता हुआ मरता है। मौत तो घटना है, लेकिन हंसते हुए मरना आत्मा है। तो आप कभी ज्योंतिषी से पूछिए कि मैं हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा। यह पूछने जैसी बात है। लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोूलाजी से जुड़ी हुई बात है।

 

आप पूछते है कब मरूंगा? जैसे मरना आपने आप में मूल्य वान है बहुत। कब तक जियूंगा। जैसे बस जी लेना काफी है। किस लिए जियूंगा क्योंस जियूंगा, जीकर क्याह हो जाऊँगा? कोई पूछने नहीं आता। इसलिए महल गिर गया। क्यों कि वह महल गिर जाएगा, जिसके आधार नान एसेंशियल पर रखे है। गैर जरूरी चीजों पर जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हो वह कैसे टिकेगा—अधार शिलाएं चाहिए। मैं जिस ज्योातिष की बात कहर रहा हूं और आप जिसे ज्योैतिष रहे है। उससे वह ज्यो तिष भिन्न हे। गुणात्मएक रूप से और गहरा है। उसके आयाम और होते है। मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्तह है, लयबद्ध है। अलग-अलग नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं है।

 

जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तब बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़कर पृथ्वी पर सिर टेक दिया। कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्काभर करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्धद हुए है। बुद्ध को पृथ्वीे पर हाथ टेके सिर रखे देखकर वे चकित हुए। उन्होरने पूछा: तुम, और किसको नमस्का्र कर रहे हो। क्यों कि हम तो तुम्हेंो नमस्का र करने स्व:र्ग से आते है। हम तो नहीं जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्का‍र करे, ऐसा कोई है। बुद्धत्वक तो आखिरी बात है। बुद्ध ने आंखें खोली और बुद्ध ने कहा, जो भी घटित हुआ है उसमें मैं अकेला नहीं हूं, सारा विश्व् है। तो इस सबको धन्यरवाद देने के लिए सिर टेक रहा था। यह एसेंशियल एस्ट्रो लाजी से बंधी हुई बात है—सार जगत। इस लिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जब भी तुम्हेंस कुछ भी भीतर आनंद मिले—तत्क्षण अनुगृहीत हो जाना समस्त् जगत के क्योंबकि तूम अकेले नहीं हो। अगर सूरज ने निकलता, अगर चाँद निकलता, अगर एक रत्तीयभर भी घटना और घटी होती तो तुम्हेंा यह नहीं होने वाला था जो हुआ है। माना कि तुम्हेंस हुआ है। बुद्ध ऐसा नहीं कहेंगे कि मुझे हुआ है। बुद्ध इतना ही कहते है कि जगत को मेरे माध्येम से हुआ है। वह जो घटना घटी है एनलाइटेनमेंट की, चह जो प्रकाश का आविर्भाव हुआ है। यह जगत ने मेरे बहाने जाना है। मैं सिर्फ एक बहाना हूं। एक क्रास रोड,जहां सारे जगत के रास्ते आकर मिल गए है। कभी आपने ख्या।ल किया है, कि चौराहा बड़ा भारी होता है। लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता है। वह जो चार रास्ते आकर मिले होते है, उन चारों को हटा लें तो चौराहा विदा हो जाता है। हम सब क्रिस क्रास प्वाइंट है जहां जगत की अनंत शक्ति,यां आकर एक बिंदु को काटती है। वह व्य्क्तिव निर्मित हो जाता है, इंडीवीजुअल बन जाता है।

 

वह जो सारभूत ज्योवतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं है। एक, उस एक ब्रह्म के साथ है। उस एक ब्रह्मांड के साथ है। और प्रत्येअक घटना भागीदार है। तो बुद्ध ने कहा है कि मुझसे पहले जो कुछ बुद्ध हुए उनको नमस्का र करता हूं, और मेरे बाद जो होंगे उनको भी नमस्काुर करता हूं। किसी ने पूछा आप उनको नमस्कांर करें जो आपके पहले हुए, यह समझ में आता है। क्यों कि हो सकता है, उनसे कोई जाना अनजाना ऋण हो क्यों कि जो आपके पहले जान चुके है उनके ज्ञान ने आपको साथ दिया हो, लेकिन जो अभी हुए ही नहीं उनसे आपको क्याप लेना-देना है, उनसे आपको कौन सी सहायता मिली है? तो बुद्ध ने कहा, जो हुए है उनसे भी मुझे सहायता मिली है। जो अभी नहीं हुए है उनसे भी सहायता मिली है। क्योंनकि जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्यि एक हो गए है। वहां जो जा चुका है, वह उससे मिल रहा है। जो अभी आने को है। वहां सूयोर्दय और सूर्यास्तै एक ही बिंदु पर मिल रहे है। तो मैं उन्हें भी नमस्काैर करता हूं जो होंगे उनका भी मुझ पर ऋण है क्यों कि अगर वे भविष्य। में न हों तो मैं आज न हो सकूंगा।

 

इसको समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह एसेंशियल एस्टोजलाजी की बात है। कल जो हुआ है अगर उसमे से कुछ भी खिसक जाए तो मैं न हो सकूंगा। क्यों।कि मैं एक शृंखला में बंधा हुआ हूं। यह समझ में आता है। अगर मेरे पिता ने हों जगत में तो मैं न हो सकूंगा। यह समझ में आता है। क्योंेकि अगर एक कड़ी अगर विदा हो जाए तो मैं न हो सकूंगा। अगर मेरे पिता न हों तो मैं न हो सकूंगा क्यों कि कड़ी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मेरा भविष्यर,अगर उसमें कोई कड़ी न हो तो मैं न हो सकूंगा, समझना मुशिकल पड़ेगा। क्योंनकि उससे क्याि लेना देना, मैं तो हो ही गया हूं।

 

लेकिन बुद्ध कहते है कि अगर भविष्यि में भी जो होने वाला है, वह न हो तो मैं न हो सकूंगा। क्योंेकि भविष्यक और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं। कहीं भी कोई भी बदलाहट होगी तो मैं वैसे नहीं हो सकूंगा जैसा हूं। कल ने भी मुझे बनाया,आने वाला कल भी मुझे बनाता हे—यही ज्यो तिष है—बीता कल ही नहीं, आने वाल कल भी—जा चुका ही नहीं,जो आ रहा,वह भी—जो सूरज पृथ्वीह पर उगे वह नहीं, जो उगे गे वह भी। वह भी भागीदार है। वह भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे है। क्योंहकि जो वर्तमान का क्षण है वह हो ही न सकेगा अगर भविष्यक का क्षण इसके आगे न खड़ा हो। उसके सहारे ही वह हो पाता है। हम सब के हाथ भविष्यन के कन्धेर पर रखे हुए है। हम सबके पैर अतीत के कंधों पर पड़े हुए है। हम सबके हाथ भविष्यव के कन्धोंे पर रखे हुए है। नीचे तो हमें दिखायी पड़ता है कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है वह न हो तो मैं गिर जाऊँगा। लेकिन भविष्यै में मेरे जो फैले हाथ है, वह जो कन्धे को पकड़े हुए है। अगर वह भी न हों तो भी मैं गिर जाऊँगा।

 

जब कोई व्यकक्तिे अपने को इतनी आन्तीरिक एकता में अतीत ओर भविष्य के बीच जुड़ा हुआ पाता है तक वह ज्योकतिष को समझ पाता है। तब ज्योनतिष धर्म बन जाता है। तब ज्योपतिष अध्या त्मस हो जाता है। और नहीं तो वह जो नान एसेंशियल है, गैर जरूरी है उससे जुड़ कर ज्योातिष सड़क की मदारी गिरी हो जाता है। उसका फिर कोई मूल्यो नहीं रह जाता। श्रेष्ठातम विज्ञान भी जमीन पर गड़ कर धूल की कीमत के हो जाते है। हम उनका क्या उपयोग करते है। उस पर सारी बात निर्भर है। इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्काक दे रहा हूं। कि आपको यह ख्यााल में आ सके—सब संयुक्ते है—संयुक्ताक इस जगत का एक परिवार होना या एक आर्गैनिक बॉडी होना, एक शरीर की तरह होना। मैं सांस लेता हूं तो पूरा का पूरा शरीर प्रभावित होता है। सूरज सांस लेता है तो पृथ्वीज प्रभावित होती है। और दूर के महा सूर्य है वे भी कुछ करते है तो पृथ्वी प्रभावित होती हे। और पृथ्वीि प्रभावित होती है तो हम प्रभावित होते है। सब चीजें छोटा सा रोयाँ तक महान सूर्यों के साथ जुडकर कंपता है। कंपित होता है।

 

यह ख्याल में आ जाए तो हम सारभूत ज्यो तिष में प्रवेश कर सकेंगे। और असार भूत ज्यो तिष की जो व्य र्थताए है उनसे भी बच सकेंगे। क्षुद्र तम बातें हम ज्यो तिष से जोड़कर बैठ गए है। अति क्षुद्र तम, जिनका कहीं भी कोई मूल्यब नहीं हे। और उनको जोड़ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है, जैसा हमने जोड़ रखा है कि एक आदमी गरीब पैदा होगातो इसका संबंध ज्योडतिष से होगा। नहीं गैर जरूरी बात अगर आप नहीं जानते है तो ज्योपतिष से संबंध जुड़ा रहेगा। अगर आप जान लेते है तो आपके हाथ में आ जाएगा।

 

एक बहुत मीठी कहानी आपको कहूं तो ख्यााल में आए, जिन्द गी ऐसी ही बे लेन्स है, ऐसा ही सन्तुगलन है। मुहम्मआद का एक शिष्यह है, अली। और अली मुहम्मीद से पूछता है कि बड़ा है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्यक स्व तंत्र है अपने कृत्य में या परतंत्र है—बंधा है कि मुक्तै है। मैं जो करना चाहता हूं वह कर सकता हूं या नहीं कर सकता हूं। सदा से आदमी ने यह पूछा है। क्योंाकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ तो फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलों ईमानदार बनों नासमझी है। एक आदमी अगर चोर होने को बदा है तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो, नासमझी है। यह फिर यह हो सकता है कि एक आदमी के भाग्यम में बदा है कि वह यही समझता रहे कि चोरी न करो—जानते हुए कि चोर चोरी करेगा बेईमान बेईमानी करेगा, असाधु होगा, हत्यार करनेवाला हत्याच करेगा, लेकिन अपने भाग्य में यह बदा है कि लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो।–एब्‍सर्ड है। अगर सब सुनिश्चि त है तो समस्त। शिक्षाऐं बेकार है—सब प्रोफट्स,सब पैगम्बिर, सब तीर्थंकर व्यअर्थ है। महावीर से भी लोग पूछते है, बुद्ध से भी लोग पूछते है कि अगर होना है वही होना है तो आप समझा क्यों रहे है—किस लिए समझा रहे हे।

 

मुहम्मद से भी अली पूछता है कि आप क्याह कहते है। अगर महावीर से पूछा होता अली ने तो महावीर ने जटिल उत्तदर दिया होता। और बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही होती। लेकिन मुहम्मिद ने वैसा उत्त र दिया था जो अली की समझ में आ सकता था। कई बार मुहम्मलद के उत्ततर बहुत सीधे और साफ हे। अकसर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े लिखे है,ग्रामीण है उनके उत्तहर सीधे और साथ होते है—जैसे कबीर के या नानक के,या मुहम्मिद के या जीसस के—बुद्ध और महावीर और कृष्णी के उत्तैर जटिल है। वह संस्कृाति का मक्खुन हे। जीसस की बात ऐसी है जैसे किसी ने सर पर लट्ठ मार दिया हो। कबीर तो कहते है—कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए बाजार में खड़े है कबीर। कोई आये हम उसका सिर खोल दें। मुहम्मद के कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं की। मुहम्मेद ने कहा अली, एक पैर उठाकर खड़ा हो जा। अली ने कहा,हम पूछते है कि कर्म करने में आदमी स्व तंत्र। मुहम्म द ने कहा, तू पहले एक पैर उठा अली बेचारा एक पैर, बायां पैर उठा खड़ा हो गया। मुहम्मुद ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले। अली ने कहा,आप क्याब बात करते है। तो मुहम्म द ने कहा, अब तू चाहता पहले तो दाहिना भी उठा सकता था। अब नहीं उठा सकता। मुहम्म द ने कहा कि एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वउतंत्र है। लेकिन एक पैर उठाते ही तत्का ल दूसरा पैर बंध जाता हे। वह जो नान एसेंशियल हिस्साठ है हमारी जिन्दूगी का, गैर जरूरी हिस्साह हे, उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने को स्वनतंत्र है,लेकिन ध्यानन रखना,उसमे उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्सेह में बन्धपन बन जाते है। वह जो बहुत जरूरी है वहां भी फंसाव पैदा हो जाता हे। गैर जरूरी बातों में फंस जाते है। मुहम्माद ने कहा,तू उठा सकता था पहला पैर भी—दायां भी उठा सकता था,कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसीलिए दायां उठाने में असमर्थता होगी। आदमी की सीमाएं हे। सीमाओं के भीतर स्व तंत्रता है। स्वएतंत्रता सीमाओं के बाहर नहीं है।

 

बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिन्तैन का। अगर आदमी पूरी तरह स्वहतंत्र है जैसा ज्योहतिषी साधारणत: कहते हुए मालूम पड़ते है, कि सब सुनिश्चिित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा तो फिर सारा धर्म व्युर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी और बुद्धिवादी गुरु कहते है कि सब स्वरच्छ न्दि है, कुछ बंधा हुआ नहीं है। कुछ होने का निश्चिहत नहीं है, कुछ अनिश्चिसत है—तो जिन्दिगी एक के ऑफ और एक अराजकता और एक स्व।च्छान्द‍ता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं,हत्या करूं और परमात्मा मिल जाए। क्योंककि जब कुछ भी बन्धाक हुआ नहीं है। और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और अब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है।

 

फिर मुझे ख्याल आता है मुल्ला नसरूदीन का। मुल्लाह एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है और एक आदमी मस्जिबद के ऊपर से गिर पडा। अजान पढने चढ़ा था। मीनार पर,ऊपर से गिर पडा। मुल्लाम के कंधे पर गिरा। मुल्लाप की कमर टूट गई। अस्पसताल में मुल्ला। भर्ती है, उसके शिष्यम उसको मिलने गए और शिष्योंल ने कहा, मुल्ला् इस र्दुघटना से क्या मतलब निकलता हे। आऊ डू इन्टऔरप्रीट इट इस घटना की व्यालख्या क्याु है? क्योंाकि मुल्लाष हर घटना की व्यांख्याम निकालता था। मुल्ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होताहै कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी कर्मफल के सैद्धान्तिनक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई,कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है, वह मेरे ऊपर सवार हो गया था, फंसा मैं। न मैं अजान पढ़ने चढ़ा, मैं अपने घर लौट रहा था हमारा कोई संबंध ही न था—फिर भी मैं फंसा।

 

इसलिए आज से कर्मफल के सिद्धांत की बातचीत बंद कुछ भी हो सकता है...कुछ भी हो सकता है। कोई कानून नहीं है। अराजकता है—नाराज था स्वाभभाविक है उसकी कमर जो टूट गई थी। दो विकल्पी सीधे रहे है—एक विकल्पस तो यह है कि ज्योीतिषी, साधारणत: जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्योवतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्योभतिषी हो चाहे मोरारजी देसाई का ज्योेतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क का है ज्योोतिषी जिससे कोई नान एसेंशियल बातें पूछने जाता है। कि इलेक्शनन में जीतेंगे कि हार जाएंगे—जैसे कि आपके इलेक्शनन से चाँद तारों का कोई लेना देना है। वह कहता है सब बंधा हुआ है। कुछ इंच भर यहां से वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है। और दूसरी तरफ तर्कवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है। सांयोगिक है, चांस है—कोइन्सीनडेंट है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां कोई नियम है। क्योंइकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरफ आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी ही धर्म और ईश्ववर को और आत्माद को तर्क से इनकार कर लेता है। लेकिन कभी महावीर की प्रसन्न ता को उपलब्धर नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते है। जिससे उनकी प्रसन्नाता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते है जिससे उनकी समाधि निकलती है। कृष्णन कुछ करते है जिससे उनकी बांसुरी के स्वेर अलग है।

 

स्थिीति तीसरी है और तीसरी स्थिति यह है, जो बिलकुल सारभूत है, जो बिलकुल अंतरतम है वह बिलकुल सुनिश्चि त है। जितना हम अपनी केंद्र की तरफ आते है उतना निश्चोय के करीब आते है। जितना हम अपनी परीधि की तरफ सरकमफेरेंसकी तरफ जाते है। उतना संयोग की तरफ जाते है। जितनी ही बहार की घटना की बात करते है उतनी ही सांयोगिक बात है। जितनी ही भीतर की बात करते है उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्चि‍त बात हो जाती है। दोनों के में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते है। जहां जाननेवाला आदमी विकल्पी चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्यआ है। जो अंधेरे में है, वह जो संयोग है, उसको पकड़ लेता है। तीन बातें हुई। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्चि त है। उसे जानना सारभूत ज्योअतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है, जहां सब अनिश्चि्त है। उसे जानना अनिश्चिभत हे। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र जो दोनों के बीच में है,उसे जानकार आदमी जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है। जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर या केंद्र के मध्यस में आदमी इस भांति जिए कि केंद्र पर पहुंच जाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जिए कि केंद्र पर कभी न पहुंच जाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।

 

जैसे, एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्वरतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा। दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुशिकल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्याक्ति बत्वु को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्पज मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित डोलता है। अगर वह न करे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है। और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है—उस ज्योतिष की तरफ जो हमारे जीवन का सारभूत है।

 

कुछ बातें मैंने कही। आज मैंने एक बात आपसे कहीं और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ है। सूर्य से जनमती है पृथ्वीम, पृथ्वीह से जन्मते है हम। हम अलग नहीं है हम जुड़े है। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्तेा हे। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह मारे पत्तेर के रोंए-रोंए, रेशे-रेशे तक फैल जाता है। और कंपित कर जाता है। यदि यह ख्याहल में हो तो हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्ध- हो सकते है। जब हमें स्वायं की अस्मिरता और अंहकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है। और ज्योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्योबतिष गलत है। तो फिर अहंकार के अतिरिक्तह कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्यो तिष सही है जा जगत सही है। और गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं मैं, एक हिस्साह ही, और वह भी कितना नाचीज टुकड़ा हूं, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती।

 

अगर ज्योतिष सही है तो मैं नहीं हूं; शक्तियों का एक प्रवाह है, उसी मेंएक छोटी लहर मैं हूं। किसी बड़ी लहर पर सवार कभी-कभी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं भी हूं। वह बड़ी लहर का खयाल नहीं रह जाता, और बड़ी लहर भी किसी सागर पर सवार है उसका तो बिलकुल खयाल नहीं रह जाता। नीचे से सागर हाथ अलग कर लेता है, बड़ी लहर बिखरने लगती है; बड़ी लहर बिखरती है, मैं खो जाता हूं। अकारण दुख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं, क्योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि हूं। अगर उसी वक्त देख लेता कि मैं नहीं हूं, बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। सागर की मर्जी उठता हूं, सागर की मर्जी खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव-दशा बन जाती कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्सा हूं, तो कोई दुख न था। हां, वह तथा कथित सुख भी फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते हैं। मैंने जीता, मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ, मैं टूट गया, मैं नष्ट हो गया, हार गया, पराजित हुआ, वह दुख भी नहीं रह जाएगा। और जब ये दोनों सुख और दुख नहीं रह जाते हैं तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते हैं जहां आनंद है। ज्योतिष आनंद का द्वार बनजाता है, अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है, हमारी ईगो को हटा देता है। लेकिन जब हम बाजार में सड़क पर ज्योतिषी के पास जाते हैं तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछने, कि घाटा तो नहीं लगेगा?यह लाटरी मिल जाएगी? नहीं मिलेगी? यह धंधा हाथ में लेते हैं, सफलता निश्चित है? अहंकार के लिए हम पूछने जाते हैं। और मजा यह है कि ज्योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है।

 

ज्योतिष का अर्थ ही यह है कि आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो,ब्रह्मांड है। विराट शक्तियों का प्रभाव है, आप कुछ भी नहीं हो। इस ज्योतिष की तरफ खयाल आए, और वह तभी आ सकता हैजब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति यह सारा का सारा संयुक्त और जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए हैं तो फिर हमको पता चलेगा कि सूर्य और महासूर्यों से जुड़ा हुआ है। कोई चार अरब सूर्य हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन सभी सूर्यों का जन्म किसी महासूर्य से हुआ है। अब तक हमें उसका कोई अंदाज नहीं वह कहां होगा। जैसे पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और साथ ही सूरज का चक्कर लगाती है, ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक-ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्या है जिसका सूरज चक्कर लगा रहा है। विराट चक्कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा कापूरा सौर परिवार भी किसी और महाबिंदु के चक्कर में संलग्न है। मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि इसजगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही हैं। प्रत्येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वेदोनों मिल कर किसी और बड़े की परिक्रमा कर रहे हैं। फिर वे तीनों मिल कर और किसी की परिक्रमा कर रहे हैं। वह जो अल्टीमेट है जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे हैं, उसको ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है--उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है। ध्यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्य और शांत है। वह धुरी, वह कील जिसपर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है, जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिकुड़ता है। हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है,फिर बिखर जाती है; ऐसे ही यह पूरा जगत खिलता है, फैलता है, एक्सपैंड होता है, फिर प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। जैसे दिनहोता है और रात होती है, ऐसे ही सारे जगत का दिन है और फिर सारे जगत की रात हो जाती है। जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्षकी एक लय है, नब्बे वर्ष की एक लय है। ऐसा हिंदू विचार का खयाल है कि अरबों-खरबों वर्ष की भी एक लय है। उस लय में जगत उठता है, जवान होता है। पृथ्वियां पैदा होती हैं, चांद त्तारे फैलते हैं, बस्तियां बसती हैं। लोग जन्मते हैं, करोड़ों-करोड़ों प्राणी पैदाहोते हैं। और कोई एक अकेली पृथ्वी पर हो जाते हैं, ऐसा नहीं।

 

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों परजीवन होना चाहिए, कम से कम! यह मिनिमम है, इतना तो होगा ही, इससे ज्यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेलीपृथ्वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार ग्रहों पर, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। अनंत फैलाव है।फिर सब सिकुड़ जाता है। यह पृथ्वी सदा नहीं थी, यह सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था, सदा नहीं होऊंगा। वैसे ही यह पृथ्वीसदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था, सदा नहीं होगा। ये चांद त्तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगे। इनके होनेऔर न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी कहीं एक पहिए की किसी धुरी पर न होने जैसे कहीं हैं। और अगर हम सोचते हों कि हम अलग हैं तो हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे कोई आदमी ट्रेन में बैठा हो...। मैंने सुना है कि एक आदमीएक हवाई जहाज में सवार हुआ। और जल्दी पहुंच जाए इसलिए तेजी से हवाई जहाज के भीतर चलने लगा--जल्दी पहुंच जाने के खयाल से! स्वाभाविक तर्क है कि अगर जल्दी चलिएगा तो जल्दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्याकर रहे हैं? उसने कहा कि मैं थोड़ा जल्दी में हूं। जमीन पर उसका जो तर्क था--वह पहली दफे ही हवाई जहाज में सवार हुआ था--जमीन पर वह जानता था कि जल्दी चलिए तो जल्दी पहुंच जाते हैं। हवाई जहाज पर भी वह जल्दी चल रहा था, इसका बिनाखयाल किए कि उसका चलना अब इररेलेवेंट है, अब असंगत है। अब हवाई जहाज चल ही रहा है। वह चल कर सिर्फ अपने को थकाले सकता है; जल्दी नहीं पहुंचेगा, यह हो सकता है कि पहुंचते-पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आंख बंद करके लेट जाना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं जो इस जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है, जल्दी नहीं है। मेरी जल्दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं इस विराट की लयबद्धता में एक बना रहूं, वही काफी है, वही आनंद पूर्ण है। ज्योतिष के लिए मैं इसीलिए आपसे इतनी बातें कहा हूं। यह खयाल में आ जाए तो ज्योतिष आपके लिए अध्यात्म का द्वार सिद्ध हो सकता है।

 

 

हमारा उद्देश्य यहां ज्योतिष के कोइ भी मत का खंडन या पुष्टि करना कतई नहीं है पाठक अपने विवेक के अनुसार सहमत या असहमत हो सकते है