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मंत्र

 

भारत की प्राचीन 14 विद्याओं में से एक विद्या, मंत्र विज्ञान रहा है। इस बात से अधिकांशतः भारतीय भली भांति परिचित है। आज भी मंत्रों के प्रयोग से बहुत सी समस्याओं को दूर किया जाता है। प्रश्न उठता है कि मंत्र क्या है और यह कैसे कार्य करता है- मंत्र विज्ञान का सम्बंध सीधा शरीर विज्ञान से है। मानव शरीर पांच तत्वों से बना है, हम सब जानते हैं। पांचों तत्वों के अपने अपने गुण होते हैं। पांचों तत्वों में से एक तत्व का नाम आकाश तत्व है और इसका गुण शब्द की उत्पत्ति का कारण आकाश है, कहते है शब्द कभी नष्ट नहीं होता। शब्द, स्वर व व्यंजन के संयोजन से बनता है। इस संदर्भ में भाषा विज्ञान को समझना पड़ेगा। ऊपर पहले बताया जा चुका है कि मंत्रों का सीधा सम्बंध शरीर विज्ञान से है अर्थात् मुख से बोले जाने वाले शब्दों में प्रयोग स्वर व व्यंजन का हमारे शरीर के मर्म स्थानों से सीधा सम्बंध होता है, यानि के जब हम कोई शब्द उच्चारित करते हैं तो शरीर के उन मर्म स्थान पर स्पंदन होता है जहां का शब्दों में प्रयुक्त स्वर व व्यंजन कारक है; उस स्पंदन से उस मर्म स्थान ऊर्जा पैदा होती है और उस मर्म स्थान से जुडे अंग प्रत्यंग स्वस्थ रहते है। आदि काल में हमारे ऋषि मुनियों ने मर्म स्थानों से जुड़े स्वर व व्यंजन को शोध कर मंत्रों का निर्माण किया जिनके सही और लयवद्ध गायन से प्रभावशाली क्रिया होती है जिससे मानव के विभिन्न प्रकार के कष्टों का निवारण होता है। परन्तु स्वयं की भूख दूसरों के खाने से नहीं मिटती है अर्थात् अपनी भूख मिटाने के लिए स्वयं ही खाना पड़ेगा या खाना पड़ता है। इसलिए यदि आप यह सोचते हैं कि मंत्रों का जाप आपके बदले कोई अन्य व्यक्ति कर ले तो भी आपको लाभ होगा तो यह असत्य है आपको लाभ तभी होगा जब आप स्वयं मंत्रों का जाप करेंगे। मंत्र असरकारक विद्या हो सकती है जब मनुष्य मंत्रों का स्वयं उच्चारण करता है यह भाषा विज्ञान साबित करता है, दुसरों के द्वारा आपके लिए किया गया मंत्र जाप आपको लाभ नहीं देगा। नोट: मंत्र जाप करने वाला व्यक्ति सभी प्रकार के दुरव्यसनों से बचेगा तो ही मंत्र फलकार होगा अन्यथा नहीं।

 

यंत्र

यंत्र देवशक्तियों के प्रतीक हैं जो व्यक्ति मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकते, उनके लिए पूजा में यंत्र रखने से ही मनोरथ सिद्ध हो जाते है। प्रत्येक यंत्र का अपना अलग महत्व है कई यंत्र हमें सुख समृद्धि प्रदान करते है, कई हमारी गृह दशाओं में शान्ति के लिए प्रभाव डालते है, तो कुछ यंत्र हमें दुर्घटनाओं से बचाते हैं और हमारी मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं, व हमें सम्पन्नता प्रदान करते हैं। प्राचीन काल से ही, भारतीय संस्कृति में, सुख, समृद्धि, दीर्घ जीवन एवं अच्छे स्वास्थ्य के लिए, यंत्र, तंत्र-मंत्र का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। विभिन्न प्रकार की आध्यात्मिक महत्वी की आकृतियॉं यंत्र के रूप में, सोने, चांदी, तांबा, अष्टधातु अथवा भोज पत्र पर विभिन्न शक्तियों को जाग्रत करने के लिए बनाई जाती है। यंत्र पर बनाई गई आकृतियों की ‘‘प्राण प्रतिष्ठा’’ सम्बन्धित देवी देवता के मंत्रों से की जाती है। यंत्रों के बीज व तांतिक मंत्रों के अभिमंत्रित किया जाता है ताकि वांच्छित परिणाम तुरन्त मिल सके। यंत्र:- ‘‘यंत्र’’ संस्कृत का शब्द है जो मूल ‘‘यमं’’ से बना है जिसका अर्थ है शक्ति देने वाला, उसे सुरक्षित रखने वाला, अथवा किसी विशेष तत्व, उद्देश्य या विचार में छुपी हुई शक्ति को जाग्रत करने वाला, यह एक ऐसी बाहरी रेखाकृति होती है जो आंतरिक रेखाकृति का आवरण होता है प्रत्येक विशेष आकृति किसी विशेष उद्देश्य के लिए होती है। यंत्र एक प्रकार की ऐसी यांत्रिक उपकरण है जो किसी परियोजना या व्यवसाय के लिए उपलब्ध श्रोत व योग्यताओं का अधिकतम सफल उपयोग में सहायक हो। इस प्रकार यंत्र को एक प्रकार की मशीन या उपकरण भी कह सकते है जो निर्माण योजना ज्योतिष, रसायन, अन्य धातु से सोना बनाने, युद्ध अथवा मनोरंजन कार्य आदि में भी उपयोग किए जा सकते है। 11 वीं शताब्दी का संस्कृत ग्रन्थ ‘‘समरांगण सूत्र धारा’’ में भी, निर्माण योजना विज्ञान का विवरण मिलता है जिसके अनुसार काष्ठ की उड़ती चिड़िया, काष्ठ के वायुयान जिनमें गर्म पारा ईंधन स्वरूप प्रयुक्त होता था। नर-मादा रोबोट आकृतियॉं, जैसे यांत्रिक ‘‘यंत्र’’ निर्माण व उपयोग किये जाते थे। बाद में यंत्र के अर्थ का विस्तार हुआ और धार्मिक क्रियाओं तथा ईश्वर से सम्बन्धित समस्त आयोजनों में इनके उपयोग का विशेष महत्व हो गया। आध्यात्मिक यंत्र ध्यान साधको का, एक मुख्य उपकरण व सहायोगी हो गया। मूलतः इस परिपेक्ष में, यंत्र एक रेखांकित आकृति के रूप में ध्यान साधना एवं आध्यात्मिक जाग्रति का उपकरण है।

यंत्र का सिद्धांतः आध्यत्मिक यंत्र निम्नलिखित तीन सिद्धांतों का संयुक्त रूप है।

1. आकृति रूप

2. क्रिया रूप

3. शक्ति रूप

ऐसी मान्यता है कि ये बह्मांड के आंतरिक धरातल पर उपस्थित आकार व आकृति का प्रतिरूप है जैसा कि, सभी प्रदार्थो का बाहरी स्वरूप कैसा भी हो, उसका मूल अणुओं का परस्पर संयुक्त रूप ही है। इसी प्रकार यंत्र में, विश्व की समस्त रचनाए निहित हैं। वैज्ञानिक भी सम्पूर्ण विश्व के अणु की आकृति एक विशेष क्रम में पाते हैं जिसमें कुछ मूल आकृतियां ‘‘सम्पूर्णता’’ लिए हुए होती हैं। इसी प्रकार भारतीय मनीषी भी, ब्रह्माण्ड के आंतरिक स्वरूप में विश्व के चित्र को, सामान्य आकृति में विभिन्न रंगों से देखते हुए प्रदर्शित करते है। यंत्र को विश्व की शक्ति विशेष को दर्शाने वाली आकृति कहा जा सकता है। ये सामान्य आकृतियॉं, ब्रह्मांड के वास्तविक भौतिक स्वरूप के सूक्ष्य एवं सटीक रूप हैं। आकृति रूप, इन रचानाओं के आन्तरिक एवं छुपे हुए स्वरूप को प्रदर्शित करता है जिससे प्रत्येक अणु से नक्षत्र का अपनी एक विशेष आकृति रूप यंत्र होता है।

एक फल या पत्ती की हमें एक बाह्म रचना दृष्टिगत होती है परन्तु इसकी एक आंतरिक रचना भी होती है जिसमें एक ढांचा न्यूक्लियस अथवा केन्द्रिय कक्ष से संबन्ध रहता है। सभी आकृतियों की एक आंतरिक रचना होती है जिसके कारण बाह्य आकार बनता है। यंत्र एक आश्चर्यजनक चिन्ह के रूप में ब्रह्मांड की सच्चाईयों और मानव के आध्यात्मिक अनुभवों को प्रदर्शित करते हुए मार्गदर्शक होता है यंत्रों की प्रारम्भिक आकृतियॉं, मनोवैज्ञानिक चिन्ह है जो मानव की आंतरिक स्थिति के अनुरूप उसे अच्छे बुरे का ज्ञान उसमें वृद्धि या नियंत्रण को सम्भव बनाती हैं। इसी कारण यंत्र ‘‘क्रिया रूप’’ है।

निरंतर ‘‘यंत्र’’ की निष्ठापूर्वक पूजा करने से आंतरिक सुषुप्रावस्था समाप्त होकर आत्मशक्ति जाग्रत होती है और आकृति और क्रिया से आगे जाकर ‘‘शक्ति रूप’’ उत्पन्न होता जिससे स्वतः उत्पन्न आन्तरिक परिवर्तन का मानसिक अनुभव होने लगता है। इस स्थिति पर आकर सभी रहस्य खुल जाते हैं। यद्यपि यंत्र का स्थूल अर्थ समझना सरल है परन्तु इसका आंतरिक अर्थ समझना इतना सरल नहीं, क्योंकि, मूलतः श्रद्धापूर्वक किये गये प्रयासो के आत्मिक अनुभव से ही इसे जाना जा सकता है। प्राण प्रतिष्ठा: यंत्र का पंचगव्य, पंचामृत एवं गंगाजल से पवित्र करके, सम्बन्धित ‘‘मंत्र’’ से यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है।

बिना प्राण प्रतिष्ठा के ‘‘यंत्र’’ का कार्य स्थल पर नहीं रखा जाता ऐसा करने से नकारात्मक किरणों के प्रभाव से हानि होने की सम्भावना रहती है। पूजा हेतु मार्गदर्शन: अनेक प्रकार के यंत्रों को एक बार प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात् नियमित पूजा की आवश्यकता नहीं होती और वे जीवन प्रर्यन्त छिपा कर रखे जाते है। सोना, चांदी, तांबा आदि घातु निर्मित यंत्रों की नियमित पूजा इत्र, चावल, फूल, गुड़ आदि से की जाती है। यंत्र पूजा कपडे पर पीले रेशमी वस्त्र पर सीधे प्रतिष्ठित किये जाने चाहिए।